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मरती सत्ता की चीख कभी सुनी है आपने . कितना दर्द दिखता है ना ! क्या ऐसी ही चीख एक बार फिर से नहीं चीत्कार कर रही है. शिव सेना प्रमुख के चीत्कार को सारा देश सुन रहा है और इस चीत्कार में उस दर्द की अभिव्यक्ति शामिल है जिसे हम बहुत कुछ खो चुके सत्ता के तानाशाह का दुःख मान सकते हैं.महाराष्ट्र की सत्ता को न हासिल कर पाने का दर्द उन्हें इतना सालने लगा कि उन्होंने हर मान-मर्यादाओं को ताक पर रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और लगे अनर्गल प्रलाप करने. शिवसेना प्रमुख द्वारा जिस प्रकार से क्षेत्रीय और भाषाई विवादों को सामने लाया गया है उससे उनकी कमजोरी ही सिद्ध हुई .एक बार फिर से यही साबित हुआ कि सत्ता को हाथ से ना जाने देने के लिए राजनीतिज्ञ कुछ भी कर सकते है और अगर कही यह सत्ता वास्तव में उनसे दूर हो जाये तो उन्हें विक्षिप्त होने में देर नहीं लगती.
किन्तु इस घटना को केवल बाल ठाकरे तक सीमित करके देखने से मामले का सरलीकरण हो जाएगा . वस्तुतः यह केवल एक दल या व्यक्ति से जुड़ा हुआ मुद्दा नहीं है बल्कि इसे देश भर में व्याप्त राजनीतिक कुरूपता के अल्पांश के रूप में देखना चाहिए . ऐसा बहुत बार होता रहा है जबकि सत्ता खिसकने के भय ने सत्तासीनों से अतिरेक कुकृत्य करवाए हैं . कुछ वर्षों पूर्व उत्तर प्रदेश में समाजवादी दल द्वारा एक विशेष समाचार पत्र पर हमले की वारदातें अंजाम दी गईं , तमिलनाडु में भी मीडिया पर हमले किए गए . जब भी कोई व्यक्ति या समूह सच को सामने लाने की कोशिश करता है तो उसकी आवाज़ को बंद करने की हर संभव चेष्टा की जाती है .
इस प्रवृत्ति को हम भारत ही नहीं विदेश में भी देख सकते हैं . जॉन हॉवर्ड के प्रधानमंत्रित्व काल में चुनाव के समय कुछ शरणार्थियों को आस्ट्रेलिया में प्रवेश नहीं करने दिया गया भले ही उनकी जान निकल गई . इस प्रकार के कृत्य करने में राजनीतिज्ञ हर प्रकार के कानूनों और नैतिक ज़िम्मेवारियों से क्यों मुक्त होते हैं यह निश्चित तौर पर शोध का विषय है .क्या उनकी अंतरआत्मा नहीं होती या उनके पास दिल नहीं होता जहाँ दर्द भी होता हो या कि उनका दिल घुटनों में होता है जहाँ से कोई आवाज़ उनके मस्तिष्क तक पहुँच ही नहीं पाती.
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