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कहा यह जाता है कि क्रिकेट में हम जीतते हैं इसलिये इसको बढ़ावा देना उचित ही है. लेकिन बात उल्टी है. जब क्रिकेट को बढ़ावा दिया गया तब हमने जीतना आरंभ किया. यही बात अन्य खेलों के संदर्भ में भी हो सकता है.
किसी शायर ने कहा है कि “और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा.” आज यह बात क्रिकेट की दीवानगी को देख कर मेरे मुंह से बरबस निकल रहा है. मीडिया में कोई खेल छाया रहता है तो वह है केवल क्रिकेट. प्रायोजकों की भरमार सिर्फ क्रिकेट् के लिए है. क्रिकेट देश के युवा वर्ग के लिए एक प्रकार की अफीम बन चुका है, जिसने उसे बाकी दीन-दुनियॉ से जुदा कर दिया है.
क्रिकेट की दीवानगी का आलम यह है कि बाकी खेल नेपथ्य में चले गए. क्रिकेट खेल का पर्याय हो गया और हम क्रिकेट के भक्त. आज हॉकी जो हमारा राष्ट्रीय खेल है, पतन के गर्त में है. फुटबॉल, कुश्ती, एथलेटिक्स, लॉन टेनिस और बैडमिंटन जैसे खेलों में कैसे कोई रुचि प्रकट करे जब इनसे जीविका भी चला पाना कठिन हो. मीडिया का पूरा फोकस केवल क्रिकेट पर होने से अन्य खेलों के खिलाड़ी लाइम लाइट में नहीं आ पाते.
कहा यह जाता है कि क्रिकेट में हम जीतते हैं इसलिये इसको बढ़ावा देना उचित ही है. लेकिन बात उल्टी है. जब क्रिकेट को बढ़ावा दिया गया तब हमने जीतना आरंभ किया. यही बात अन्य खेलों के संदर्भ में भी हो सकता है.
यदि अन्य खेलों को सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर उपेक्षित करने की नीति का परित्याग किया जाए तो सार्थक परिणाम प्राप्त किया जा सकता है. चयन से लेकर प्रशिक्षण तक पारदर्शी प्रक्रिया होना नितांत जरूरी है और खेल संघों से नेताओं व नौकरशाहों का वर्चस्व समाप्त होना ही चाहिए तभी हम भी चीन की तरह विजेता बन कर उभर सकते हैं.
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