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कहीं जलवायु परिवर्तन का हौव्वा तो नहीं

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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बार- बार आपको एक सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाला शब्द सुनाई देता है जलवायु परिवर्तन और इससे पैदा होने वाला भयानक संकट जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग के रूप में जानते हैं. पूरे विश्व को इसने आतंकित कर रखा है . हर प्लेटफॉर्म पर इसको नियंत्रित किये जाने और लड़ने के उपायों पर बात हो रही है . हर ओर गहमा-गहमी और भागम-भाग लगी है जैसे लगता है कि पूरी जिंदगी का सबसे बड़ा सच केवल जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाला  संकट है. मित्रों इस संकट की गहराई में जाने से पूर्व हमें कुछ मौलिक बिन्दुओं पर विचार जरूर करना चाहिए.

पृथ्वी एक प्रकार का संतुलन हमेशा बनाए रखती है.

संकट का शिगूफा
संकट का शिगूफा

किसी भी प्रकार के होने वाले उथल-पुथल निश्चित प्राकृतिक क्रिया के परिणाम होते हैं जिन पर किसी मानवीय  या दैविक सत्ता का कोई नियंत्रण नहीं होता है. जब भी बात आती है कि मानवीय क्रिया-कलाप बड़े पैमाने पर पृथ्वी का संतुलन नष्ट कर रहे हैं तो यह तय करना अनिवार्य है कि कितना और किस रूप में. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बारे में छद्म प्रचार करके विकसित देश अन्य विकासशील और अल्प विकसित देशों का भयादोहन कर रहे हैं.

सारी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं पर विकसित देशों का वर्चस्व है. नियामक संस्थाएं भी उन्हीं की ज़रखरीद  गुलाम की तरह व्यवहार करती हैं ऐसे में हमें कौन सही तथ्यों से परिचित कराएगा? जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनेल की रिपोर्ट बार-बार यही दर्शाती है जैसे सारे संकट की जड़ नई विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाएं ही हैं और विकसित देशों की  इसमें बहुत कम भूमिका है . परन्तु हमें वास्तविकता को आँख खोलकर पूरे होशोहवास में समझना होगा ताकि उन मंतव्यों से अवगत हुआ जा सके जो मानवता को लगातार भ्रम में रखे हुए हैं.

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