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शक्तिशाली को हमेशा ही सम्मान मिला है क्योंकि वह कमजोर की नियति निर्धारित करता है. ओबामा को प्राप्त हुआ नोबल सम्मान इस बात को पुष्ट करने के लिए काफी है कि अब वक्त है अहिंसा की बातें करने का, ना कि अहिंसा का आचरण करने का.
शांति और अहिंसा को अस्त्र की तरह इस्तेमाल तो सदियों पूर्व से किया जाता रहा है. इनको सबसे बड़ा हथियार बापू ने बनाया जिनके द्वारा एक वैश्विक ताकत को पराजित कर दिया गया. “अहिंसा परमो धर्मः” सुक्ति वाक्य भारतीय शास्त्रों का शंखनाद है जिससे सम्पूर्ण विश्व प्रभावित हुआ था. लेकिन जब शांति का सर्वोच्च सम्मान एक ऐसे व्यक्ति को मिले जिसने शांति और अहिंसा के लिए कोई उल्लेखनीय कार्य ना किया हो तब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति व अहिंसा की समझ और मंतव्य का भंडाफोड़ होना ही है.
बराक ओबामा को नोबल क्यों प्राप्त हुआ यह बहस का विषय है. क्या ऐसे देश का मुखिया जिसके हाथ में पूरे पृथ्वी को कई-कई बार नष्ट करने की ताकत मौजूद हो वह अपने अहंकार के बल पर इस सम्मान का हकदार हो सकता है? नोबल समिति ने यह फैसला क्योंकर लिया और उसकी क्या मंशा रही थी, इसे जानने का मौका मिलना ही चाहिए.
लेकिन यदि तथ्यगत विश्लेषण किया जाए तो वस्तुस्थिति खुद ब खुद सामने आ जाती है. बराक ओबामा ताकत की बात करते हैं. नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय ही उन्होंने यह जतला दिया था कि अमेरिका के ऊपर किसी भी वक्र दृष्टि का जवाब सिर्फ ताकत का प्रदर्शन होगा. क्या ताकत का प्रदर्शन बिना हिंसा के संभव है?
यानी मामला वर्चस्व को कायम रखने का है. शक्तिशाली को हमेशा ही सम्मान मिला है क्योंकि वह कमजोर की नियति निर्धारित करता है. यासिर अराफात को भी अहिंसा का सर्वोच्च पुरस्कार नोबल दिया गया था जबकि अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को यह सम्मान नहीं मिल सका था. आखिर क्यों?
जो भी शक्तिशाली होगा वह अपनी किस्मत स्वयं लिखेगा. दूसरों से प्रमाणपत्र लेने की चेष्टा कायर करते हैं और ना मिल पाने पर रोदन करते हैं. ओबामा को प्राप्त हुआ यह सम्मान इस बात को पुष्ट करने के लिए काफी है कि अब वक्त है अहिंसा की बातें करने का, ना कि अहिंसा का आचरण करने का. अर्थात शांति व अहिंसा शब्द फैशन बन चुकें हैं जिन्हें भूमंडलीकरण का नया फंडा कहना चाहिए.
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