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हाय रे हिन्दी तेरा नहीं नामलेवा कोई

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला अभी हाल ही में मैं प्रगति मैदान में लगने वाले 19वें विश्व पुस्तक मेले में इस नियत से गया था कि जरूर इस बार कुछ ऐसा देखने को मिलेगा जिससे आत्मा तृप्त हो जाएगी. मेरा पूरा मकसद यह जानना था कि इस प्रतिष्ठित बुक प्रदर्शनी में हिन्दी के मामले में नया क्या कुछ है?
बुक फेअर में अंग्रेजी की स्थिति तो कुछ ठीक नज़र आई किंतु हिन्दी के मामले में निराशा ही अधिक रही. वही स्थापित और प्राचीन लेखकों की किताबों के नए प्रिंट कुछ नए रंग-ढंग से पेश मिले तो राजकमल के स्टाल पर नामवर जी का दर्शन हुआ.
हॉ एक नया ट्रेंड यह देखने में आया कि तमाम अंग्रेजी में लिखी गयी पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद जरूर जोर-शोर से अपनी उपस्थिति का अहसास करा रहे थे. अनुदित पुस्तकों की ओर पाठकों का रुझान भी आकर्षित करने वाला क्षण रहा. हिन्दी के अधिकांश पब्लिशर्स इस बात से निराश लग रहे थे कि मेले में आने वाली भीड़ केवल दर्शक के समान इधर-उधर टहलती अधिक दिखायी दी और उसमें पुस्तक प्रेम का अभाव साफ झलक रहा था.
अब आते हैं उस विमर्श पर जिसके लिए मैंने यह ब्लॉग लिखा है.
पूरे मेले का विचरण करने पर जो सबसे महत्वपूर्ण बात नज़र आयी वह थी हिन्दी में नये और बड़े नामों का अभाव. यानी हिन्दी के बाज़ार में केवल पुराने और चर्चित साहित्यकार ही बिक पा रहे हैं तथा नये लोग सिर्फ स्टालों की शोभा ही बन कर रह गये हैं. यह एक प्रकार की रिक्तता है जिसे किस प्रकार भरा जाए यह अपने आप में ही एक चुनौती है.
हिन्दी का बाज़ार बहुत विस्तृत हो चुका है इसमें तो किसी को कोई सन्देह नहीं किंतु इसके बावज़ूद यह स्थिति सचमुच चिंतनीय है. आखिर किसे दोष दें? क्या हिन्दी में रचनाकारिता का ही अभाव हो चुका है?

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