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कोई भिखारी शौक से नहीं बनता

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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अभी हाल ही मैं घर से दिल्ली की ओर ट्रेन से वापसी की यात्रा कर रहा था. यह घटना उसी यात्रा के दौरान घटित हुयी. कभी-कभी कुछ यात्राएं मजेदार होने के साथ बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती हैं. कुछ ऐसा ही इस सफर में भी घटित हुआ.

 

बात भिखारियों को भीख देने से शुरू हुयी. रेल कम्पार्टमेंट में अक्सर भीख लेने वालों का आवागमन लगा ही रहता है. एक दस-बारह बरस का बालक जो शकल से ही निरीह प्रतीत हो रहा था, बड़े मार्मिक अन्दाज में हाथ फैला कर भीख मांग रहा था. कई लोग उसे देख नाक-भौं सिकोड़ने के अन्दाज में इधर-उधर लगे मुंह फेरने. कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने जेब में हाथ डाल कर कुछ रेजगारी निकाली और उस बालक की ओर उछाल दिया जिसे उसने समेट लिया. फिर उसने योगी की निश्चल मुद्रा में अन्यों की ओर देखा तो कुछ औरतों ने वात्सल्य भाव से उसे पैसे दे ही दिया.

 

इस पर कुछ तथाकथित समाजसुधारक और नाम के बुद्धिजीवियों ने अपना दर्शन उलीचना स्टार्ट कर दिया (बुद्धिजीवी समाज के ठेकेदार जो मानते हैं अपने को). एक बुद्धिजीवी कहता है कि इन सबका रोज का धन्धा है यह. जैसे वह कोई राज़ की बात बता रहा हो. दूसरा बुद्धिजीवी तुरंत अपना ज्ञान प्रदर्शन करते हुए जवाब देता है कि इन्हें भीख देना एक अपराध है. कुछ लोगों ने बालक को सलाह दे डाली कि काम करो, आखिर इतने हट्ठे-कट्ठे होकर भीख मांगते हुए शर्म नहीं आती!

 

आखिर जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैं बोल ही उठा कि जब हम या हमारी सरकार अनाथों, लावारिशों, अपंगों या घर-बार हीन लोगों के लिए कोई भी इंतजाम करने में सक्षम नहीं हैं तो फिर किस हक से हम दूसरों को इनकी मदद करने से रोक रहे हैं. भले ही हमारे द्वारा दिए गए पैसे का वे दुरूपयोग करें या कोई गिरोह ही उनसे भीख मंगवा रहा हो फिर भी कम से कम उनकी जान तो बची रहती है अन्यथा पता नहीं उनका क्या हो. भिक्षावृत्ति को अपराध की श्रेणी में डाल कर कानून बना दिया सरकार ने और उसके कर्तव्य की इतिश्री हो गयी. क्या सरकार का कर्तव्य केवल इतना भर है? और समाज का कर्तव्य क्या है ? केवल अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेना!

 

यदि देखा जाए तो कोई मजे के लिए भीख नहीं मांगता है. इसके पीछे का सच बहुत भयानक और दर्दनाक है. अपनी आत्मा को मार कर सड़क पर निकल पड़ना कटोरा लेकर एक ऐसी बात होती है जिसे कोई मनुष्य कैसे बर्दाश्त कर सकेगा. जब हम सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की बात करते हैं तो उसमें दबे-कुचले लोगों का स्थान तय होना चाहिए किंतु भीख मांगने वालों के लिए तो दबा-कुचला शब्द भी नहीं इस्तेमाल करते हैं लोग. तो फिर व्यवस्था में उनका भाग कैसे निर्धारित हो?

 

इस प्रकार की घटना निश्चित रूप से लगभग हर एक के साथ घटित होती रहती है. किंतु भिखारियों को देख कर घृणा करने की बजाए हमें स्वयं पर लज्जित होना चाहिए कि हमारे होते हुए भी जीवित मनुष्यों को इस हाल में जीवन-यापन करना पड़ रहा है. मानवता को शर्म आनी चाहिए जिस बात पर उस पर शर्म या खेद व्यक्त करने की बजाए लेक्चर देना तो एक निन्दनीय कर्म ही हो सकता है.

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