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फाइनेंस मिनिस्टर प्रणव मुखर्जी द्वारा लोकसभा में आर्थिक समीक्षा पेश कर देने के बाद देश में इस बात पर बहस जारी हो चुकी है कि सरकार का आर्थिक मोर्चे पर अगला कदम क्या होगा? इस समीक्षा में बताया गया है कि मंदी से निपटने के लिए जो आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज दिए गये थे, उन्हें एक झटके में वापस नहीं लिया जायेगा. समीक्षा में यह भी अनुमान लगाया गया है कि वित्त वर्ष 2011-12 में देश की आर्थिक विकास दर नौ प्रतिशत को पार कर जायेगी. इतना ही नहीं, चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था में 7.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई. यानी संकेत बहुत सकारात्मक हैं.
समीक्षा में यह स्पष्ट इंगित है कि इस आर्थिक वृद्धि में आ रही तेजी तथा अर्थव्यवस्था के मंदी से उबरने और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में वृद्धि, निर्यात में तेजी और कापरेरेट क्षेत्न के लाभ को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन पैकेज चरणबद्ध तरीके से वापस लिये जाएंगे. यानी एकाएक सरकार अपने कदम पीछे नहीं खींच लेगी इस बात से आश्वस्त हुआ जा सकता है.
अभी वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार होने की सिर्फ बातें की जा रही हैं. परंतु वास्तविक स्थिति के बारे में कयास लगा पाना अब भी बहुत मुश्किल है. ऐसे में भारत को अपने आंतरिक संसाधनों पर निर्भर रहने का अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए. मंदी के दौरान भारत का अर्थ क्षेत्र में प्रदर्शन पूरे विश्व के लिहाज से काफी ठीक-ठाक रहा क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था मूलरूप से निर्यात आधारित नहीं रही. यहॉ पर छंटनी जैसी बातें भी काफी कम हुईं. यहॉ तक कि पूरा विश्व हमारी ओर आशा भरी निगाहों से देखता रहा कि चलो कम से कम कोई तो है जिस पर भरोसा किया जा सकता है.
लेकिन क्या सिर्फ अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए इस बात पर बहस की आवश्यकता है. सरकार का मुख्य कार्य शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने के साथ ही अपने नागरिकों के जीवन स्तर में वास्तविक बदलाव लाना है. लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है?
कुछ लोग भ्रम में हो सकते हैं कि मोबाइल, लैपटॉप और इंटरनेट कल्चर के प्रवेश के साथ हमारे लोगों का जीवन स्तर बदल रहा है. पिज्जा-बर्गर की संस्कृति की दखल हमारे जीवन में बहुत बढ़ चुकी है. तो क्या मान लिया जाए कि हम विकास के पथ पर आगे चल रहे हैं. नहीं, बल्कि इस भ्रम में रहना एक प्रकार का गुनाह होगा.
विकास का लाभ सबको समान रूप से मिलना चाहिए जो कि बिलकुल नहीं हो पा रहा है. देश की तीस-चालीस फीसदी आबादी अब भी काफी तंगहाली का जीवन व्यतीत कर रही है. भिखारियों, अपंगों, बेसहारा और लाचार लोगों के लिए हम अभी भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं. राहत कार्य के दौरान होने वाली लूट को नियंत्रित करने की कोई प्रणाली अभी भी नहीं स्थापित हो सकी है.
योजनाओं के क्रियांवयन के दौरान आने वाली बाधाओं को अनदेखा कर दिया जाता है. नरेगा और मिड डे मील स्कीम की असफलता सबके सामने है. इसके पीछे हो रहे भ्रष्टाचार को सभी जानते हैं. इस दौरान क्षेत्रवाद जैसी प्रवृत्तियों में भी इजाफा हुआ है. शोषण के नये रास्ते तैयार हो रहे है और कॉरपोरेट जगत के नाम पर देश की तस्वीर बदलने के दावे किए जा रहे हैं.
पंचायतों को और भी अधिक अधिकारों से लैस करने की कवायदें जारी हैं किंतु इस बात पर बिलकुल ध्यान नहीं है कि इसमें आ चुके भ्रष्टाचार और अन्य बुराइयों को कैसे दूर किया जाए. पंचायतें एक प्रकार से कमाई का धन्धा बन चुकी हैं.
चिंता की बात यह है कि जिस समावेशी विकास(इंक्लुसिव ग्रोथ) के नारे के साथ ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना को आरंभ किया गया था उसे कहीं से भी पूरा करने की बात नहीं दिखती है. अलग-अलग बिंदुओं को एक साथ समेट कर देखने से ही तस्वीर साफ होगी. कहॉ क्या जरूरी है यह बात स्पष्ट होनी ही चाहिए और फिर उसी आधार पर आगे की रणनीति बनाई जा सकती है.
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