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आतंकवादी का मानवाधिकार

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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बहुत दिनों से कुछ प्रश्न मन में उमड़-घुमड़ कर रह जा रहे हैं. वक्त की अत्याधिक कमी की वजह से लिखने का अवसर नहीं निकल सका. किंतु इस बार मुद्दा ही ऐसा है कि लेखनी अपने आप चल पड़ी. बात कुछ यों है कि एक सज्जन ने आतंकवाद का मसला जबरदस्त तरीके से उठा कर मजबूर कर दिया कि कुछ लिखा जाए. उनके पोस्ट पर मैने जो टिप्पणी लिखी उसे ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूं:

 

“जिसके घर का कोई नहीं मरता आतंकवाद से, वही करता है मानवाधिकार और उदार सोच की बात. और समझता है दकियानूस ऐसे लोगों को, जो करते हैं आतंकवाद को मिटाने की बात. हालांकि यह उनकी नासमझी है इससे ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि जब इन्हीं के अपने शिकार होते हैं उग्रवाद के, तब ऐसे लोग सबसे पहले करते हैं इसे खत्म करने की बात.”

 

अभी मैं हाल ही में ट्रेन से वापस दिल्ली लौट रहा था. कुछ मुसलमान भाइयों से सामान्य सी चर्चाएं चलने लगीं. उनके भीतर एक आक्रोश भरा हुआ था व्यवस्था और भारत के प्रति जो रह-रह कर सामने आ ही जाता था. उन लोगों का यह मानना था कि हिन्दू लोग उनका हक कभी भी उन्हें नहीं देना चाहते.

 

इसी के कुछ समय पूर्व मैं जम्मू-काश्मीर की यात्रा पर था. वहॉ भी ऐसा ही अनुभव देखने में आया. एक बुजुर्गवार मुस्लिम सज्जन से मुलाकात हुई जो घाटी में होने वाले आतंकवादी घटनाओं की पैरवी कर रहे थे. उनका मानना था कि आतंकवादी बेवजह हत्याएं नहीं करते.
दोनों घटनाओं में एक बात बिलकुल समान थी “धर्म के प्रति अतिशय आग्रह.” जबकि दोनों ही मामलों में पूर्ण रूप से साक्षर और अच्छी नौकरियों में रत लोग थे. कुछ अजीब और चौंकाने वाले सच हैं यह.

 

हमारे नपुंसक और कायर राजनेताओं ने स्थिति खराब कर रखी है और भयादोहन की पॉलिसी के तहत मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में तब्दील कर दिया है.
हिन्दू भय के प्रकटीकरण और बार-बार हिन्दुओं को ही तमाम गड़्बड़ियों के लिए जिम्मेदार ठहराकर ये नेता कौम अपनी सीटें सुरक्षित रखने की कोशिश करती रही है. इन्हें इसके दूरगामी दुष्परिणामों की कोई चिंता नहीं रहती है.
यही कारण है कि देश का ऐसा कोई भाग नहीं बचा जिसे वाकई सुरक्षित कहा जा सके. नागपुर-मुंबई हो या दिल्ली-हैदराबाद सभी इस खतरे की जद में आ चुके हैं.

 

अब आतें हैं मूल समस्या पर. इतनी बातें करने का यही उद्देश्य था कि मामले की समझ कायम हो जाए. जब बात आती है आतंकवाद की तो सबसे ज्यादा परेशानी होती है तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की. इन्हें देशवासियों की जान कौड़ियों के भाव लगती है और ये एक स्वर में आतंकियों के मानवाधिकार की बातें करने लगते हैं.

 

इन्हें पाकिस्तान के साथ संबंधों की चिंता अधिक और काश्मीर के विस्थापित हिंदुओं की चिंता बिलकुल नहीं होती. बड़ी लच्छेदार बातें करने में ये सिद्धहस्त होते हैं और जब बात आती है मुकाबले की तो सबसे पीछे यही खड़े मिलते हैं.
शब्दों की बाज़ीगरी और पहुंच के बेजा इस्तेमाल से ये शासन के ऊपरी स्तर पर कब्जा करने में कामयाब हो जाते हैं और फिर शुरू हो जाती है इनकी कायराना हरकतें.

 

सावधान! पहचानिए वास्तविक दुश्मनों को. देश के सबसे बड़े दुश्मन आतंकवादी नहीं बल्कि ऐसे ही तथाकथित बुद्धिजीवी और तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दल और उनके पुरोधा हैं. इनकी मंशा को रोकने की हर कोशिश होनी चाहिए और सबसे ज्यादा जरूरी है इनका बहिष्कार. अगर ऐसा नहीं हो सका तो फिर बर्बादी का दौर रोक पाना नामुमकिन हो जाएगा.

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