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हवा पर भी दावा है इनका

राजनीतिक सरगर्मियॉ
राजनीतिक सरगर्मियॉ
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वैश्विक स्तर पर आप वाम और दक्षिण के झगड़े हमेशा से सुनते रहे हैं और इन विवादों ने लोगों को एक भ्रम में जीने को मजबूर किया है. व्यक्ति हमेशा इस अनिर्णय की स्थिति में फंसा रहा है कि इन दो एकदम से विपरीत धाराओं में से कौन सी धारा उसके लिए हितकारी है.
एक अनजान और नितांत निपट अंधेरा जहॉ आपका कोई साथी नहीं, आप को अकेले ही ये निर्णय कर लेना है कि किस ओर जाना है, आपकी सोचने की दिशा किस पक्ष की ओर हो और अंतिम तौर पर कौन संपूर्ण मानवता के लिए हितकारी सिद्ध होगा और कौन विनाशकारी.

 

बदलती धारा की निरंतरता सभी देख रहे हैं. इस धारा में कुछ निश्चित ताकतें लगातार शक्तिशाली हो रही हैं. ऐसी शक्तियों में सब कुछ मोड़ देने की क्षमता विद्यमान है. यह सब कुछ हो रहा है मानवता की भलाई के नाम पर क्योंकि यही वो उपकरण है जिसके सहारे संपूर्ण विश्व के संसाधनों पर कब्जा कर लेने की साजिश कामयाब हो सकती है.

 

इतना निष्क्रिय कर दो इंसान को कि उसकी सोचने की शक्ति कुन्द पड़ जाए, उसे इतना पराश्रित बना दो कि उसके भीतर किसी विरोध की ताकत ही ना बच रहे. चूंकि स्वतंत्र आदमी की सत्ता खतरनाक होती है इसलिए उसे गुलाम बना डालना होगा. छुट्टा व्यक्ति मांग करेगा तो उसे बन्धक बनाए बिना काम नहीं चलने वाला.

 

यानी सारी साजिश, सारे षड़यंत्र मानवता के खिलाफ हो रहे हैं. इंसानी सभ्यता को गिरवी रखने की कोशिश, जहॉ सोच से लेकर खान-पान और रहन-सहन सभी कुछ नियंत्रित हो.

 

हॉ, एक बात है कि इसके पीछे के षड़यंत्र का पर्दाफाश नहीं होने दिया जाता. जो भी प्रयास दिखाए जाते हैं वे सब सभ्य और समृद्ध बनाने के नाम पर होते हैं. हमारे चारो ओर एक ऐसा पर्दा डाल कर रख दिया गया है ताकि हकीकत कोई ना जान पाए और यदि कुछ लोग जान भी जाएं तो जो बहुमत भ्रमित लोगों का है वह स्वयं ही आगे आकर बचाव कर देता है. यानी एक सेफ्टी वाल्व, एक सुरक्षा कवच विद्यमान है जिससे लगातार रक्षा होती रहती है.

 

वाम और दक्षिण के झगड़े को समझने को जरूरत है. यदि ये कहें कि ऐसा कोई झगड़ा ही नहीं है तो कइयों को आश्चर्य होगा. लेकिन हकीकत समझने की जरूरत है. दुनियांभर में अपनी सत्ता कायम करने के प्रयासों का नतीजा है वामपंथ और दक्षिणपंथ का भ्रम. और इस भ्रम का नतीजा है मानसिक रूप से ध्रुवीकरण.

 

अब शुरू हो जाती है पराधीनता और इसके पोषकों का साम्राज्य होने लगता है कायम. एक ऐसा संसार निर्मित किया जाता है जिसमें हर कोई यही समझे कि फलॉ विचार या सिद्धांत लाभकारी है और उसके विपरीत जो है वह हानिकारक. मनुष्यता पर विजय पाने की इसी कवायद में बाज़ार फैलता है और फैलता चला जाता है.

 

इस झगड़े को समझने के बाद यह भी स्पष्ट देखा जा सकता है कि कोई समाजवादी विचारधारा भी मौजूद नहीं है. जो भी है सिर्फ भ्रम है. भारत में आप देखें कि कई राज्यों तथाकथित समाजवादियों की सरकारें रही हैं लेकिन उनके चरित्र और व्यवहार में अन्य गैर समाजवादियों से क्या फर्क रहा?
वही लूट, वही विदेशी निवेश और वोट के लिए वही विभाजन वाली राजनीति सभी समाजवादी दल करते रहे. तो फिर समाजवाद भी एक व्यापार हो गया और अंततः सबका उद्देश्य एक ही रहा अधिकाधिक लाभार्जन. इसी तरह वाम दलों पर नजर डालिए. जो बात इनके वोट और जनाधार को बढ़ाती है वह स्वीकार्य है और जिस बात से इनका जनाधार कम हो वह विरोध के काबिल. यानी सारा झगड़ा सिर्फ सत्ता पर काबिज होने का है ना कि किसी की भलाई का.

 

भारत के कई राज्यों में फैला नक्सलवाद आदिवासियों और गरीबों की भलाई के नाम पर शुरू किया गया था. वसूली, अपहरण, गुंडागर्दी के साथ इन्होंने सत्ता को डराना आरंभ किया और आज एक बड़ी ताकत के रूप में सामने आ चुके हैं. किंतु इसकी हकीकत को भी समझना जरूरी है. नक्सलवाद भी उसी वैश्विक व्यापार का एक भाग है जिसे भलाई के नाम पर चलाया जा रहा है. सरकारों का भला कभी इनका विरोध करने पर और कभी इनके समर्थन पर होता रहता है. कुल मिलाकर एक सोची-समझी चालाकी जिसमें बड़ी आसानी से जनता को फंसा दिया जाता है.

 

अभी मैं गत कुछ दिनों से बाज़ार का रुझान देख रहा हूं. मैं देखता हूं कि कॉरपोरेट घरानों ने संपूर्ण विश्व में अधिकांश मानवजाति को वाकई गुलाम और पराश्रित बना लिया है. अब लोग सरकारी नौकरियां छोड़ कर निजी क्षेत्रक को अपनी पहली पसन्द में शामिल कर रहे हैं. भारत जो कि हमेशा से परंपरावादी देश रहा था यहॉ भी यही ट्रेंड फॉलो किया जाने लगा है. जबकि अधिकांश लोग निजी क्षेत्रक की नौकरियों में हमेशा डरे-डरे से रहते हैं फिर भी वे एक भ्रम के शिकार हैं कि निजी क्षेत्र में उनकी अधिक ग्रोथ होगी और इसी भ्रम के वशीभूत वे एक बेहतर भविष्य को खो रहे होते हैं.
अधिकांश आबादी निजी हाथों में संसाधनों के जाने के दुष्परिणामों से नावाकिफ है. बाजारवाद की भयावहता ऐसी है कि डर लगना ही चाहिए. किंतु नहीं लगता डर बल्कि लुभाती हैं तमाम तरह की प्रलोभनें. अच्छा लगता है खुद को लुटने देना.

 

बहुत कुछ कहना है किंतु वह सब मैं अगली पोस्टों में कहुंगा. अभी मैं इसी बात से समापन करता हूं कि इन मसलों पर एक खुली बहस होनी चाहिए और सभी विचारशील लोगों को खुली दृष्टि से हर बिन्दु को क्रमवार समझ कर आने वाले भविष्य के लिए समाधान तलाशने की कोशिश करनी चाहिए.

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