Menu
blogid : 16 postid : 383

संतत्व की क्यों हो अपेक्षा

राजनीतिक सरगर्मियॉ
राजनीतिक सरगर्मियॉ
  • 67 Posts
  • 533 Comments

राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना आज यही है कि अब इसका मूल स्वरूप ही बदल चुका है. किंतु हमारी विडंबना ये है कि हम राजनीतिज्ञों से संतत्व की अपेक्षा रखते हैं. वक्तव्य और कृतित्व में बड़ा फर्क आ चुका है. लोक लुभावन शब्दों के आडंबर तले राजनीति कराह रही है. नागरिक इसी कराहती राजनीति के साए तले अपने लिए अवसर की तलाश में हैं. स्थिति खतरनाक है और कुल मिलाकर भयभीत करने वाला परिदृश्य है.


देश में अभी राजनेताओं के द्वारा अपनी मजदूरी बढ़ा लेने के मामले पे चर्चा हो रही है. सभी विक्षुब्ध हैं कि आखिर जिन्हें देश की सेवा करने का दायित्व सौंपा गया है वे कैसे खुद ही अपना पारिश्रमिक तय कर लेते हैं और वो भी इतनी बड़ी राशि के रूप में.  निश्चित रूप से ये दुखद है कि अब आजादी की आंदोलन के दौरान की मानसिकता राजनीति से बिलकुल तिरोहित हो चुकी है. और यही कारण है कि देश भ्रष्टाचार के गर्त में डूब चुका है. और इसी बदले परिदृश्य में हमें ये सोचना होगा कि क्या हम नेताओं की अपने वेतन को बढ़ाए जाने का विरोध कर के सही कर रहे हैं या कि हमें ऐसी स्थिति पर विचार करके यथार्थ को स्वीकार करना चाहिए.


हम आज इस तथ्य को बिलकुल खारिज़ नहीं कर सकते कि हर कोई अपना हित पहले साधना चाहता है. किसी भी अन्य व्यवसाय की भांति आज राजनीति पूरी तरह एक प्रोफेशन में तब्दील हो चुकी है. आम आदमी की राजनीति में आने की संभावना शून्य हो चुकी है क्योंकि चुनाव लड़ना उसके बूते से बाहर की चीज है. केवल अत्याधिक धन-संपन्न व्यापारी या बाहुबली अपराधी या राजनेताओं के कुल-खानदान के लोग ही ऐसी राजनीति को अपनाते हैं.


कुल मिलाकर मामला ये है कि कोई भी नेता जो एक बार विधायक या सांसद चुन लिया जाता है वो ये जानता है कि अगली बार उसकी गद्दी तभी सुरक्षित रह सकती है जबकि उसके पास करोड़ों रुपया हो चुनाव में बहाने के लिए. और ये करोड़ों आएंगे कहॉ से? स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार से क्योंकि किसी भी सीधे रास्ते से अकूत संपदा कैसे इकट्ठी हो सकती है.


और सबसे जरूरी बात ये भी है कि जब आमजन को नैतिक शिक्षा और कर्तव्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जाएगा तो ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ नेतृत्व कहॉ से जनम लेगा. आमजन दबंग और अपराधी छवि के लोगों को जिस नजर से देखता है उसमें सम्मान और भय दोनों एक साथ होते हैं. लोग किसी दबंग नेता से अपना संबंध होने का हवाला देके अन्य लोगों पे अपना असर देखते हैं. यानी हमारी मनोवृत्ति ऐसी है कि हम हमेशा किसी छत्रछाया की तलाश में होते हैं.


और जब बात नेतृत्व के साफ सुथरे होने की है तो ये कल्पना करना ही अव्यवहारिक होगा कि इसी व्यवस्था में पला-बढ़ा व्यक्ति जिसे बचपन से ही स्वार्थ और बेहतर कॅरियर तथा सबसे आगे रहने की शिक्षा दी जाती हो वह पावर मिलने पे परमार्थ में जिएगा. हमारी नजर केवल विरोध पे ना होके सच को स्वीकार करने की होनी चाहिए और ये भी स्पष्ट करना चाहिए कि यदि इसी व्यवस्था में हमें भी नेता बनने का अवसर मिला होता तो क्या हम सिद्धांतों और नैतिक आचरण से युक्त राजनीति कर रहे होते?


यकीनन हममें से अधिकांश के पास केवल वक्तव्य होते हैं और कृतित्व के नाम पे शून्य के अलावा बचता ही क्या है……..


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh