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आजकल देश में क्रिकेट का बुखार एक बार फिर शुरू हो चुका है. क्रिकेट के दीवाने अपने प्यारे देश के विजय और चहेते खिलाड़ियों द्वारा शानदार प्रदर्शन की चाहत में पूजा-अर्चना और प्रार्थनाएं कर रहे हैं. अच्छा भी लगता है कि चलो भाई कोई ऐसा खेल है जिसमें हम अव्वल हैं नहीं तो बाकी खेलों में हमारा प्रदर्शन अकसर लचर ही रहता रहा है.
लेकिन जब मैं सोचता हूं कारगिल वार के टाइम के चल रहे क्रिकेट वर्ल्ड कप के बारे में तो मन खट्टा हो जाता है. पूरा देश सारा कामधाम छोड़कर क्रिकेटमय हो गया जबकि सीमा पर जवान शहीद हो रहे थे. किसी को खबर ही नहीं थी कि देश गहरे संकट में है. जवानों की विधवाओं के आंसू पोछने वाला कोई नहीं था, वीरों के बच्चे चीत्कार कर रहे थे कोई सुनने वाला नहीं था. आखिर क्यों?
ये तो गनीमत रही कि भारत सेमीफाइनल में नहीं जा पाया और सुपर सिक्स से ही बाहर गया. एकबारगी देश के क्रिकेटप्रेमियों को लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया. लोगों ने थोड़े समय के लिए क्रिकेट सितारों की निन्दा की और क्रिकेट में पुनः ना रमने की कसमें खायीं और तब जाकर उन्हें लगा कि देश में और भी कुछ हो रहा है. उन्हें अचानक लगा कि देश संकट में है, युद्ध शुरू हो चुका है, सीमा पर सैनिकों की लाशें बिछ रही हैं.
और फिर चूंकि देश एक मोर्चे पर हार चुका था (क्रिकेट को किसी मोर्चे से कम मत समझिए-क्रिकेट प्रेमियों की भावना कुछ ऐसी ही होती है) तो क्रिकेट के दीवाने अब देश को दूसरे मोर्चे पर जिताने के लिए कमर कस कर तैयारी करने लगे. लेकिन यदि भारत सुपर सिक्स में जीत कर सेमी फाइनल और फाइनल तक का सफर तय करता तो क्या यही क्रिकेट के दीवाने भारत के संकट के समय सैनिकों का मनोबल बढ़ा पाते? शायद नहीं, क्योंकि उनकी आत्मा तो क्रिकेट में जीत देखने को तरस रही थी.
और उस दौरान मीडिया की हालत देखिए वह तो और भी बुरे व्यापारिक रवैये का प्रदर्शन कर रही थी. मीडिया क्रिकेट सितारों की प्रोफाइल, टीम प्रोफाइल, आंकड़ों की बाजीगरी दिखाने और अपना व्यवसाय चमकाने में मगन थी. उसे भी युद्ध से कोई खास मतलब नहीं था. लेकिन जब भारतीय टीम बाहर हो गयी तो मीडिया को अपनी टीआरपी व रेटिंग्स बढ़ाने के लिए कारगिल वार पर फोकस करना पड़ा.
कई बार मस्ती और मनोरंजन के बीच वास्तविक यथार्थ को अवायड करना घातक हो जाता है. क्रिकेट हो या कोई अन्य खेल क्या वह देश हित से अधिक जरूरी है? क्या देश पर आए संकट की खबर देना मीडिया का दायित्व नहीं? जनता को इतना जागरुक तो होना ही चाहिए कि किस समय किस बात को प्राथमिकता दी जाए इसका फैसला वह खुद ले सके. हमें ये उम्मीद करनी चाहिए कि आगे कभी ऐसा ना हो कि हम मनोरंजन के लिए राष्ट्र की रक्षा से समझौता कर बैठें.
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