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उग्रवादी विचार या कट्टरपंथी आचार किसी भी राष्ट्र के लिए समान रूप से खतरनाक होते हैं. खासकर पाकिस्तान के लिए तो और भी खतरनाक जहॉ हमेशा से ही कट्टरपंथी मुख्य धारा में रहे हैं. अभी अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी की नृशंस हत्या ये बात जाहिर करती है कि पाकिस्तानी व्यवस्था पूरी तरह कट्टरपंथियों के गिरफ्त में है और कोई भी निर्णय धर्म का बाज़ार चलाने वालों की मर्जी के खिलाफ नहीं हो सकता.
शहबाज भट्टी की हत्या का कारण केवल इतना है कि उन्होंने निंदित और घृणित ईश निंदा कानून का मुखर विरोध किया और वहॉ के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने की कोशिश की. इससे पूर्व वहॉ और भी बहुत से लोग ईश निंदा कानून की चपेट में आकर जान गवा बैठे हैं. अभी कुछ समय पूर्व ही पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की भी हत्या की मूल वजह ईश निंदा कानून का विरोध था.
आखिर ऐसी क्या बात है जो पाकिस्तान में अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करती है. कट्टरपंथी आतंकी गतिविधियों ने वहॉ के आम नागरिकों का जीना हराम कर रखा है. आधुनिक मानवीय मूल्यों का तिरस्कार कर पुरातन मध्ययुगीन विचारों को थोपने की तानाशाह कोशिशें अर्थव्यवस्था पर घातक चोट पहुंचा रही हैं फिर भी राजनीति पंगु है, राजनीतिज्ञ तमाशबीन बन कर खड़े हैं, सत्ता पर सीधा नियंत्रण फौज का है और फौज कठमुल्लों के असर में है.
अब बात करते हैं भारत की जहॉ पर देवियों की नंगी तस्वीर बनाने वाले हुसैन को कला का बेहतरीन संरक्षक माना जाता है, हिंदुओं की आस्था के प्रतीकों का मखौल उड़ाया जाता है. सहज रूप से धर्मांतरण की गतिविधियां चालू हैं और इसका विरोध करने वालों को मानवता का विरोधी करार कर उन्हें सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है. और बातें छोड़िए, देश के कुछ भागों में आप प्यारा तिरंगा फहराने की हिमाकत भी नहीं कर सकते क्योंकि ये भी सरकार की नजर में उग्रवादी कृत्य है.
इस बात को पाकिस्तानी हत्याकांड के साथ सिर्फ इसलिए उल्लिखित किया गया है क्योंकि ये साफ-साफ भारतीय और पाकिस्तानी राजनीति और सामाजिक व्यवस्था में अंतर दर्शाता है. इसका ये मतलब नहीं कि हम भी वैसे ही हो जाएं. लेकिन जनता के बर्दाश्त करने की एक सीमा होती है और वह सीमा कभी भी पार हो सकती है. आप कब तक बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं को अल्पसंख्यक हितों के नाम पर दबाते रहेंगे. हालांकि भारतीय स्वभाव से ही सहिष्णु हैं लेकिन शायद ये उनका सबसे बड़ा अपराध भी है.
कायराना हरकतों को धार्मिकता नहीं कही जा सकती है और किसी एक मत के मानने वाले के ऊपर दूसरे संप्रदाय का वर्चस्व खतरनाक है. सही अर्थों में देखें तो सारा जोर प्रभुत्व या वर्चस्व कायम करने का है और सारा खेल धन के लिए है. अधार्मिक लोग धर्म का खेल खेल रहे हैं और कट्टरपंथ का बाजार चला रहे हैं. ऐसे में इंसान की मर्जी और अभिव्यक्ति की आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाता.
ईशनिंदा कानून के नाम पर किसी की भी हत्या कर देना ताकि कभी भी कोई ये ना कह सके कि उसके क्या अधिकार हैं. भयादोहन की राजनीति करके आमजन को डर-डर के जीने को मजबूर करना ताकि पाखंड का बाज़ार निर्बाध रूप से चलता रहे. लेकिन ये तथ्य भी उन्हें समझ लेनी चाहिए कि हर बात की एक हद होती है. और ठीक इसके विपरीत भारत की बात करें तो यहॉ जैसी सहिष्णुता भी आज के लिहाज से कोई प्रशंसा की बात नहीं. हॉ, हमें गर्व है कि हम किसी भी कट्टर समुदायों से किसी भी तरह का मुकाबला कट्टरता में नहीं करते और ना ही हमारी इच्छा है. लेकिन ये जरूर है कि प्रतिरोध क्षमता बनी रहनी चाहिए जिससे हर कोई ऐरा-गैरा हमारी आस्था, हमारी प्रतीकों और हमारी मान्यताओं व रिवाजों का मखौल ना उड़ा सके.
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