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साम्राज्यवाद का लोकतांत्रिक मुखौटा

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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अरब देश अचानक उभरे जनतंत्र के ज्वार से भयभीत हैं. वर्षों से सत्ता पर काबिज तानाशाह हिल उठे हैं और अपनी गद्दी बचाने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं. व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनता में छटपटाहट दिख रही है इसलिए लोग सड़कों पर उतर कर अपना विरोध जता रहे हैं. लीबिया हो या यमन विद्रोह की आग तेज हो चुकी है और यही लग रहा है कि बस कुछ समय में वहॉ लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा.


लेकिन जरा हालात पर नजर गहराई से डालें तो स्थिति कुछ और ही नजर आती है. आपको याद होगा कि अमेरिका ने दुष्ट राष्ट्रों की एक सूची बना रखी है जिसमें इराक, ईरान और लीबिया सहित उत्तर कोरिया भी शामिल है.  अमेरिका और पश्चिमी देशों द्वारा बार-बार घोषित किया जाता रहा है कि विश्व शांति के लिए खतरनाक ये देश कुछ भी कर सकते हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा की दिशा में इनका वजूद हानिकारक है. विकसित देशों की इसके पीछे की मंशा जानना ज्यादा जरूरी है.


पश्चिमी देश अपने दीर्घकालिक हितों की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहे हैं इसमें कोई संदेह नहीं. तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की भविष्यकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उनका तेल के व्यापक भंडार वाले देशों पर सीधे-सीधे कब्जा होना अनिवार्य है. लेकिन मुलम्मा लोकतंत्र का चढ़ाना जरूरी है क्योंकि यही वह शब्द है जिसके आधार पर व्यापक जन सहयोग इकट्ठा करना आसान है.


क्युबा अमेरिका का सबसे बड़ा विरोधी रहा है. लेकिन क्या अमेरिका उसे भी ऐसे ही धमकी देता नजर आता है. बिलकुल नहीं तो कारण क्या है. अफगानिस्तान नेस्तनाबूद कर दिया गया, इराक में व्यापक जनसंहार के अस्त्र खोजने के नाम पर अराजकता फैला दी गयी और दोनों देशों में कठपुतली सरकार का वजूद कायम कर दिया गया.  उत्तर कोरिया पर समय-समय पर प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं और आने वाले वक्त में कभी भी उस पर हमला किया जा सकता है. इसी क्रम में लीबिया का नंबर आ चुका है.


अमेरिका और उसके सहयोगी देश मुस्लिम देशों पर हमले कर रहे हैं. जबकि तथाकथित लोकतंत्र  को लेकर किसी ईसाई बहुल राष्ट्र पर कोई हमला नहीं. जहॉ क्रिश्चियन हैं वहॉ इस तरह के हमले क्यों नहीं किए जाते. यदि किसी ऐसे देश में हमले की जरूरत हुई भी तो वहॉ की मुस्लिम आबादी इसका शिकार बनी.


विश्व राजनीति में लोकतंत्र जमी जमाई सत्ता को उखाड़ फेंकने का सबसे बेहतर बहाना है और इसके ठेकेदार कुछ विकसित देश हैं. लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों के संसाधनों पर कब्जे की राजनीति चल रही है. एशियाई राजनीति में निरंतर दखल के बावजूद इन देशों को शर्म नहीं आती. दोहरा रवैया अपनाया जाता है और कभी तानाशाह स्थापित किए जाते हैं तो कभी विस्थापित कर दिए जाते हैं.


विश्व इतिहास के गत साठ वर्षों पर नजर डालें तो सच सामने आता है. कोफ्त होती है देखकर कि कैसे छ्द्म जाल बिछाए जाते रहे हैं. अमेरिका की सरपरस्ती जिसे हासिल हुई वह बादशाह बन गया और जिस पर निगाहें टेढ़ी हुईं वह साफ हो गया. आज भी यही हो रहा है. लीबिया हो या कोई अन्य अरब देश, जनता एकबारगी इतनी बड़ी मात्रा में सड़कों पर उतर कर क्रांति की बाते करने लगी है, अधिकांश जनता सुनियोजित हमलों में शामिल हो रही है. आखिर उसे इतने सारे अस्त्र-शस्त्र कहॉ से मिले कि वह देश की सत्ता को चुनौती देने की हिमाकत कर बैठी.


इसलिए शक होता है कि इन सब के पीछे साम्राज्यवादी शक्तियों का हाथ है, और विश्व शासन पर अपनी पकड़ बना कर उसे मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखना इनकी नीयत. ताकत का प्रदर्शन कर लोगों के अंदर अपने अजेय होने का भ्रम कायम करना और फिर उनके संसाधनों का दोहन करना ही इनका उद्देश्य. अरब देशों में जन विद्रोह के पीछे कौन से षडयंत्र हैं जब तक इसका खुलासा नहीं होता तब तक ये मान लेना एक भारी भूल होगी कि वहॉ रास्ता लोकतंत्र की ओर जा रहा है. कहीं ऐसा ना हो कि लोकतंत्र की आंड़ में साम्राज्यवादी मंसूबे अपनी करामात दिखा दें.

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