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समलैंगिक जमात के उन्मूलन की अनिवार्यता

राजनीतिक सरगर्मियॉ
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परम हर्ष का विषय है कि आखिरकार जागरण जंक्शन मंच द्वारा स्वयं ऐसे संवेदनशील और चिंतनीय विषय को फोरम के माध्यम से जनता के सामने विचार-विमर्श के लिए रखा गया है. समलैंगिक जमात की समस्या राष्ट्र के सामने सर उठा कर खड़ी हो रही है. भोगियों और मानसिक रोगियों की ये जमात सामाजिक-सांस्कृतिक सद्भाव को बिगाड़ने की हर संभव कोशिश में लगी हुई है. नाज फाउंडेशन के माध्यम से ये जमात अपने व्यभिचार को कानूनी जामा पहनवाने के लिए जीतोड़ प्रयत्न में संलग्न है. इसके लिए माननीय उच्चतम न्यायालय में कानूनी लड़ाई जारी भी है. लेकिन समस्या उससे कहीं अधिक बड़ी है जितना लोग अभी सोच भी नहीं सकते. समस्या शोषण की नई शुरुआत को कानूनी शक्ल देने से है.


समलैंगिक जमात उस घृणित समुदाय के रूप में है जिसकी विलासिता और भोग की कोई सीमा नहीं होती. अपने मनोरंजन और विलास की खातिर मासूम बच्चे-बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाने में ऐसे हैवानों को कोई गुरेज नहीं होता. ये उस मानसिक विकृति के परिचायक हैं जहॉ पर केवल और केवल भोग को प्राथमिकता मिलती है. दुर्भाग्य ये कि भारत में ऐसे घृणित जानवरों की पहले से ही उपस्थिति रही है जिनमें से अधिकांश चोरी-छुपे अपने काम को अंजाम देते रहे हैं. समाज चूंकि इसे हमेशा ही एक अत्यंत निंदित कर्म के रूप में देखता रहा है इसलिए भारत में इसकी स्वीकार्यता नहीं हो पाई. किंतु आधुनिक युग की बयार इतनी दूषित हो चुकी है कि आज कुछ समलैंगिक सदस्य अपने समलैंगिक होने का साहस से उद्घोष कर रहे हैं साथ ही इनकी हिम्मत तो देखिए, वे अधिकारों की मांग तक करने लगे हैं.


मुझे आश्चर्य इस बात पर है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने कैसे समलैंगिक व्यवहार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया? क्या न्यायालय के ऐसे सांस्कृतिक-सामाजिक विघटनकारी फैसले को हमे शिरोधार्य कर लेना चाहिए? यकीनन समाज के कुछ अपने मानदंड होते हैं जिन पर मेरा मानना है कि किसी भी न्यायालय को फैसला लेने का कोई हक नहीं. भारत राष्ट्र की आत्मा चीत्कार क्रन्दन युक्त होती होगी जबकि ऐसे फैसले उस पर थोपे जाते हैं. समाज की समरसता को बिगाड़ने वाले ऐसे निर्णय किस सीमा तक हमारी आत्मा को चोट पहुंचाते रहेंगे?


सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्थापना की चाहत रखने वाले सभी राष्ट्रप्रेमियों को इस बात पर दृढ़ होना होगा कि किसी भी प्रकार की अराजकता का समर्थन करने वाले कथित उदार बौद्धिकों और समुदायों या व्यक्तियों को बहिष्कृत करने का तरीका ढूंढ़ा जाए ताकि समाज में गंदगी फैलाने का कोई दुस्साहस भी ना कर सके. समलैंगिक समुदाय को भयभीत कर उन्हें इस प्रवृत्ति से छुटकारा दिलाना होगा, उनके विरुद्ध कठोर सामाजिक दंड लागू कर उनके मुक्ति के उपाय किए जाने चाहिए. समलैंगिकों को किसी भी हाल में कोई भी समर्थन देने वाला ना हो ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए. यानि एक बेहद अनुशासित समाज बनाना होगा जहॉ पर आचरण की शुचिता, पवित्रता, नैतिक मर्यादा की प्रतिष्ठा की रक्षा की जा सके. व्यभिचारी समलैंगिकों के प्रति पूर्ण तिरस्कार भाव के सृजन से जरूर भारत राष्ट्र अपने सर्वोच्च लक्ष्य यानि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के निर्माण में सफल हो सकेगा.


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