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समलैंगिकता पर माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश के तत्काल बाद से धारा 377 को वैध ठहराने को गलत बताने की होड़ सी लग चुकी है। न केवल समलैंगिक सेक्स में लिप्त व्यक्ति और उनके समलैंगिक समर्थक वरन् कई राजनेताओं सहित तमाम विख्यात शख्सियतें भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मजम्मत करने में जुट गई हैं। इन लोगों को विभिन्न कारणों से समलैंगिक सेक्स पसंद आता है इसकी पुष्टि तो इनके समर्थित कथनों से तो जाहिर ही होता है साथ ही यह भी बात साफ तौर पर नज़र आती है कि देश में समलैंगिकता के पक्ष में लहर चल रही है। इसके समर्थक भले ही खुद को सावर्जनिक रूप से समलैंगिक न बताते हों किंतु आज जिस तरह वह सुप्रीम कोर्ट से नाराज दिख रहे हैं उससे उनकी समलैंगिक सेक्स में संलिप्ततता पर संदेह नहीं रह जाता। खैर यह तो हुई समलैंगिक सेक्स को लेकर पसंदगी-नापसंदगी की बात किंतु जहां तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश को गलत ठहराने की कवायद की जा रही है उससे हमें चेत जाना चाहिए कि देश में कितने घटिया दर्ज़े के लोग मौजूद हैं जिनकी व्यभिचार को भी वैध करवाने की मांग जारी है और जो अपने पक्ष में लॉबिइंग करने में सफल भी दिख रहे हैं।
इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि किसी भी डिबेटिंग प्लेटफॉर्म पर मौजूद समलैंगिकता के विरोधी जिस तरह इसका विरोध कर रहे हैं उससे केवल इसके समर्थकों को मजबूती मिलती है। समलैंगिकता के विरोधी अनैतिकता, मर्यादा, संस्कृति रक्षण आदि बातें उठाते हैं जिस समलैंगिकता के पक्षधर मानवाधिकार व पर्सनल च्वायस की बात कहकर उन्हें दबा देते हैं। जबकि समलैंगिकता के विरोध का आधार अनैतिकता, मर्यादा, संस्कृति रक्षण आदि से कहीं बहुत ज्यादा व्यापक और गंभीर है। वस्तुतः आईपीसी की धारा 377 किसी भी रीति में अननैचुरल सेक्स को अपराध ठहराती है। इसमें मुख मैथुन, गुदा मैथुन, पशु मैथुन आदि शामिल हैं। यानि इस धारा का उद्देश्य नैतिकता बहाल करना नहीं है बल्कि यह मनुष्य को मनुष्यता की हद में रहने के लिए बाध्य करती है। वैज्ञानिक आधार पर इस बात की पुष्टि की जा चुकी है कि मल निष्कासन के अंग में लिंग प्रवेश विभिन्न रोगों का सर्जक है। गुदा का उपयोग मनोरंजन के लिए करने वाले कितने घिनावने होंगे इसको सहज ही समझा जा सकता है। गुदा मैथुन कुछ ऐसा ही है जैसे कोई अपने शरीर पर मल लेपन करे। वैसे भी मल निष्कासन के अंग से मल ही तो निकलेगा यानि घृणित और गंदी यौनिक क्रिया और यह क्रिया जिन्हें प्रिय है स्वच्छता से उनका क्या रिश्ता होगा इसे भी समझा जा सकता है। यानि इसके विरोध का आधार ‘हाइजीन’ सर्वप्रमुख है।
मुख मैथुन को किस आधार पर पसंदगी और मानवाधिकार से जोड़ा जा रहा है यह बात समझ से परे। खाने, बोलने के अंग से/में यौनागों का प्रवेश वैसे भी इतना अतार्किक है जिस पर बहस क्या करनी तिस पर समलैंगिकों का विरोध मानवाधिकार राग। यह इस बात के लिए रो रहे हैं कि आखिर उन्हें मल लपेटने की इजाजत क्यों नहीं मिल रही है? क्या समाज अंधा और विवेकशून्य हो चुका है जो किसी को आत्महत्या करने की इजाजत दे दे!!
समलैंगिकों की बात मान लेने का अर्थ है समाज में ऐसी व्यवस्था बनाना जहां पर पुरुष किसी भी बच्चे, स्त्री को अपनी लिप्सा का शिकार बना सके और उसे रोकने के लिए कोई कानून न हो। शादी-शुदा जोड़ों में पति अपनी पत्नी के साथ गुदा मैथुन करेगा और पसंदगी तथा मानवाधिकार की बात से उसे चुप करा देगा। यानि अत्याचार की खुली छूट। अभी कई ऐसे मामले आए हैं जहां पर मुख मैथुन करने वाले मुख कैंसर से पीड़ित पाए गए। ऐसे में क्या इसके विरोध का आधार स्वास्थ्य रक्षण नहीं होना चाहिए?
एक बात बड़ी ही सामान्य हो चली है कि उदारता, मानवाधिकार और पर्सनल च्वायस के आधार पर कुछ भी जायज है। यानि व्यवस्था विहीन समाज जहां पर मात्र स्व-हित प्रधान हो तथा किसी भी प्रकार के नियंत्रण, नैतिक संहिताएं भोगियों और व्यभिचारियों की राह में बाधा न बन सकें। भले ही समाज का पतन हो जाए किंतु भोग-विलास में कमी नहीं आनी चाहिए। ऐसे मनोरोगियों का इलाज भी सामान्य रोगियों की तरह नहीं हो सकता। कोई योग और मेडिसीन इनके लिए बेकार हैं। इनका एक ही इलाज है कानूनन बलपूर्वक दंड और वह भी ऐसा जिससे यह पूरे समाज को संक्रमित न कर पाएं।
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